तुर्की के मुस्लिम शासक बख्तियार खिलजी का जब यहां शासन था तो उसने नालंदा यूनिवर्सिटी में आग लगवा दी थी। यहां के पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें थी कि पूरे तीन महीने तक आग धधकती रही। खिलजी यहीं नहीं रुका उसने यहां के कई धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करा दी।
खिलजी का पूरा नाम इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी था। खिलजी ने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। इतिहासकार विश्व प्रसिद्ध नालंदा यूनिवर्सिटी को जलाने के पीछे जो वजह बताते हैं उसके अनुसार एक समय बख्तियार खिलजी बहुत ज्यादा बीमार पड़ गया। उसका काफी इलाज किया गया पर कोई फायदा नहीं हुआ। तब उसे नालंदा यूनिवर्सिटी के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्रजी से उपचार कराने की सलाह दी गई। उसने आचार्य राहुल को बुलवा लिया तथा इलाज से पहले शर्त लगा दी की वह किसी हिंदुस्तानी दवाई का सेवन नहीं करेगा। उसने कहा कि अगर वह ठीक नहीं हुआ तो आचार्य की हत्या करवा देगा।
अगले दिन आचार्य उसके पास कुरान लेकर गए और कहा कि कुरान के पेज नंबर इतने से इतने तक रोज पढ़िए ठीक हो जाएंगे। उसने ऐसा ही किया और ठीक हो गया। अपने ठीक होने की उसे खुशी नहीं हुई उसको बहुत गुस्सा आया कि उसके हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है। बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले उसने 1199 में नालंदा यूनिवर्सिटी में ही आग लगवा दी। वहां इतनी पुस्तकें थीं कि तीन महीने तक यहां से धुआं उठता रहा। उसने हजारों धर्माचार्यों और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करा दी। खिलजी के ठीक होने की जो वजह बताई जाती है वह यह है कि वैद्यराज राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पेज के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था। वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया और ठीक हो गया। उसने इस एहसान का बदला नालंदा को जलाकर दिया।
नालंदा उस समय भारत में उच्च शिक्षा का महत्वपूर्ण और विश्व विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्धधर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गई इस बौद्ध यूनिवर्सिटी के अवशेष इसके प्राचीन वैभव का अंदाज करा देते हैं। सातवीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस यूनिवर्सिटी के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में यहां जीवन का एक साल एक स्टूडेंट और एक टीचर के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध ‘बौद्ध सारि पुत्र’ का जन्म भी यहीं पर हुआ था। स्थापना व संरक्षण इस यूनिवर्सिटी की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम को जाता है। इस यूनिवर्सिटी को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान दिया। इसे सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला।
नालंदा को स्थानीय शासकों और भारत की दूसरी रियासतों के साथ ही कई विदेशी शासकों से भी अनुदान मिलता था। यह विश्व की पहली पूर्णतः आवासीय यूनिवर्सिटी थी। उस समय इसमें स्टूडेंट्स की संख्या करीब 10,000 और टीचर्स की संख्या 2000 थी। यहां भारत से ही नहीं कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी स्टूडेंट पढ़ने आते थे।
नालंदा के स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं से बारहवीं सदी तक अंतर्राराष्ट्रीय ख्याति रही थी। विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की मूर्तियां स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे।
यहां हुई खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने की संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आंगन में एक कुआं बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।
विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देखभाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गांवों से प्राप्त उपज और आय की देखरेख यही समिति करती थी। विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे।
ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे। प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्य भट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। यहां प्रवेश लेने के लिए कठिन परीक्षा होती थी। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को पास करना होता था। आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान देकर शिक्षा देते थे।
नालंदा कि खुदाई में मिली अनेक कांसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहां खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। नालंदा में हजारो विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था जिसमें तीन लाख से अधिक पुस्तके थीं। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी।
खिलजी का पूरा नाम इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी था। खिलजी ने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। इतिहासकार विश्व प्रसिद्ध नालंदा यूनिवर्सिटी को जलाने के पीछे जो वजह बताते हैं उसके अनुसार एक समय बख्तियार खिलजी बहुत ज्यादा बीमार पड़ गया। उसका काफी इलाज किया गया पर कोई फायदा नहीं हुआ। तब उसे नालंदा यूनिवर्सिटी के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्रजी से उपचार कराने की सलाह दी गई। उसने आचार्य राहुल को बुलवा लिया तथा इलाज से पहले शर्त लगा दी की वह किसी हिंदुस्तानी दवाई का सेवन नहीं करेगा। उसने कहा कि अगर वह ठीक नहीं हुआ तो आचार्य की हत्या करवा देगा।
अगले दिन आचार्य उसके पास कुरान लेकर गए और कहा कि कुरान के पेज नंबर इतने से इतने तक रोज पढ़िए ठीक हो जाएंगे। उसने ऐसा ही किया और ठीक हो गया। अपने ठीक होने की उसे खुशी नहीं हुई उसको बहुत गुस्सा आया कि उसके हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है। बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले उसने 1199 में नालंदा यूनिवर्सिटी में ही आग लगवा दी। वहां इतनी पुस्तकें थीं कि तीन महीने तक यहां से धुआं उठता रहा। उसने हजारों धर्माचार्यों और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करा दी। खिलजी के ठीक होने की जो वजह बताई जाती है वह यह है कि वैद्यराज राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पेज के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था। वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया और ठीक हो गया। उसने इस एहसान का बदला नालंदा को जलाकर दिया।
नालंदा उस समय भारत में उच्च शिक्षा का महत्वपूर्ण और विश्व विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्धधर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गई इस बौद्ध यूनिवर्सिटी के अवशेष इसके प्राचीन वैभव का अंदाज करा देते हैं। सातवीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस यूनिवर्सिटी के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में यहां जीवन का एक साल एक स्टूडेंट और एक टीचर के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध ‘बौद्ध सारि पुत्र’ का जन्म भी यहीं पर हुआ था। स्थापना व संरक्षण इस यूनिवर्सिटी की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम को जाता है। इस यूनिवर्सिटी को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान दिया। इसे सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला।
नालंदा को स्थानीय शासकों और भारत की दूसरी रियासतों के साथ ही कई विदेशी शासकों से भी अनुदान मिलता था। यह विश्व की पहली पूर्णतः आवासीय यूनिवर्सिटी थी। उस समय इसमें स्टूडेंट्स की संख्या करीब 10,000 और टीचर्स की संख्या 2000 थी। यहां भारत से ही नहीं कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी स्टूडेंट पढ़ने आते थे।
नालंदा के स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं से बारहवीं सदी तक अंतर्राराष्ट्रीय ख्याति रही थी। विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की मूर्तियां स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे।
यहां हुई खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने की संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आंगन में एक कुआं बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।
विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देखभाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गांवों से प्राप्त उपज और आय की देखरेख यही समिति करती थी। विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे।
ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे। प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्य भट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। यहां प्रवेश लेने के लिए कठिन परीक्षा होती थी। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को पास करना होता था। आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान देकर शिक्षा देते थे।
नालंदा कि खुदाई में मिली अनेक कांसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहां खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। नालंदा में हजारो विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था जिसमें तीन लाख से अधिक पुस्तके थीं। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी।
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